रविवार, नवंबर 09, 2014

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा काम है - हैदर ( सत्य से परे )




हैदर फिल्म नब्बे के दशक के आस पास कश्मीर की वादियों के बीच सफर करती है । भारतीय गणराज्य में कश्मीर की भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्ता को काफी लंबे समय से क्रमिक व पूर्वनियोजित तरीके से बदला जा रहा है ।
विशाल भारद्वाज की फिल्म "हैदर" भारत, भारतियों और भारतीय सेना को कठघरे में खड़ा करती है। यह फिल्म छद्म सेक्युलरिज्म के दोयम दर्जे का उदाहरण है। विशाल भारद्वाज ने यह फिल्म समाज के उस वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई है जो गाजा पर हो रहे हमलों का तो विरोध करते हैं लेकिन सीरिया और इराक पर चुप रहते हैं । सिर्फ चर्चा बटोरने के लिए बनाई गई इस फिल्म में सिर्फ एक आंख से कश्मीर के सच को दिखाया गया है । जिसे पहली ही नज़र में खारिज कर देना ही भारत की एकता और संप्रभुता का लिए अच्छा होगा ।
भारत में पिछले कुछ सालों से ऐसे लोगं की जमात तेजी से बढ़ रही है जो स्वयंभू बौद्धिक वर्ग से संबंधित होना का दंभ भरते हैं और अपने आपको को खुली विचारधारा का मानते हैं , इन लोगोंं ने कश्मीरी आतंकवादियों और अलगाववादियों के लिए भारतीयों के दिल में एक सॉफ्टकार्नर बनाने की मुहिम छेड़ दी है, और इस काम के लिए इन्होंने साहित्य और सिनेमा को हथियार बनाया हुआ है । इनका मूल उद्देश्य अलगाववादियों के लिए भारतीय समेत पूरी दुनिया में एक सहानुभूति की भावना को जागृत करना है । दादा साहब फाल्के का मानना था कि समाज में परिवर्तन करना हो तो उस समाज के मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन कर दो समाज अपने आप बदल जाएगा और कुछ ऐसा ही अभी वर्तमान में देखने को मिल रहा है । ये तथाकथित बोद्धिक वर्ग हमारी वर्तमान और आने वाली नस्लों में एक छद्म सेक्युलरिज्म का बीज बो रहे हैं जो सभी परिस्थितियों में एक पक्षीय होकर फैसला आतंकीयों और उग्रवादियों के नाम सुना देता है । उनकी आंखों से निकलने वाले आंसुओं से इनका दिल पिघल जाता है और उनके लिए मानवाधिकारों की डुग - डुगी पीटना शुरू कर देते हैं । लेकिन यही तथाकथित बौद्धिक या सेक्युलर वर्ग इन आतंकियों और अलगाववादियों के द्वारा किए गए जुल्मों को भुला देता है । उनके द्वारा किए गए बलात्कारों को भुला देता है । सेना की जो परिभाषा हैदर जैसी दोयम दर्जे की फिल्म में दिखाई गई है अगर उसे पैमाना बनाकर हम पूरी भारतीय सेना पर उंगली उठा सकते हैं तो फिर मैं सारी मुस्लिम कौम को गद्दार या आतंकी कहने से भी नहीं गुरेज करना चाहुंगा क्योंकि अगर चंद मुस्लिमों के आतंकी बन जाने से पूरी कौम पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है ( जोकि मेरा मानना भी है और सच भी यही है ) तो चंद सैनिक के जवानों के द्वारा किया गया कुकृत्य घाटी में तैनात पूरी सेना का चरित्र को नहीं बयां कर सकता है । नब्बे का दशक वो समय था जब घाटी में आतंकियों को पनाह देने में वहां के बाशिंदे खुद उनकी मदद किया करते थे । सेना को वो किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं दिया करते थे । अलगाववादियों का वहां के नौजवानों पर पूरा नियंत्रण था । पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों की संख्या चरम पर थी । और उनकी गोलियों से मरने वाले देश के जवानों की गिनती रुकने का नाम नहीं ले रही थी। लेकिन मानवाधिकार के पुरोधाओं और सेक्युलर नाम की जमात ने उन जवानों के घर वालों के आसुओं को दरकिनार कर दिया क्योंकि वो देशभक्ति से जुड़ा हुआ था लेकिन उस अधूरे सच को दिखाना ज्यादा जरूरी समझा जिससे देश की अखंडता और संप्रभुता पर एक बार फिर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आवाज़ को एक तरफा बल मिल सके । विशाल भारद्वाज ने हेमलेट की आड़ में जो कहानी गढ़ी है उसमें उन्होंने हेमलेट को मात्र एक ढाल बनाया है जबकि उनके अंदर के छिपे तथाकथित मानवीय हृदय ने एक आंख से पूरी दुनिया को अधूरा सच दिखाने का प्रयास किया है । मैं पूछना चाहता हूं विशाल भारद्वाज से कि आतंकियों की गोलियों ने जिन अबोध लोगों की जानें ली उनकी वेदनाओं पर उनकी फिल्म क्या कहती है । जिस सेना के जवान नित दिन अपनी आहुती इस घाटी में दे रहे हैं उनके बच्चों की वेदनाओं का क्या । आखिर उनके लिए हैदर चुप क्यों है ।कश्मीर से मीलों दूर रहकर एसी कमरों में बैठकर एक कहानी लिखना और फिल्म की शूटिंग उसी सेना के सुरक्षा कवच में रहकर करना जिसको आप अपनी फिल्म में हेय दृष्टि का शिकार बनाते हैं , कहीं से भी आपको बोद्धिकता की श्रेणी में लाकर नहीं खड़ा करता है । मैं विशाल भरद्वाज से पूछना चाहता हूं कि जब शूटिंग के दौरान उन्हें तिरंगा झंडा नहीं फहराने दिया गया था तो क्या तब भी उनका मन सेना के प्रति उसी द्वैष से भरा हुआ था । सरदार वल्लभ भाई पटेल और कश्मीर रियासत के राजा हरी सिंह का इतिहास अगर विशाल भरद्वाज ने पढ़ा होता तो शायद वो ऐसी फिल्मों को नहीं बनाते । विशाल भरद्वाज अगर कश्मीर में काफी शोधकार्य किए हैं तो उन्हें , ला शरकिया ला गरबिया, इस्लामिया इस्लामिया इस्लामिया... , जैसे नारों से भी वाकिफ होना चाहिए जो कश्मीर के अलगाववादियों व वहां के रहवासियों के बीच आपको अक्सर सुनने को मिल जाएगा ।
कश्मीर का जिक्र हो और करीब 6 लाख विस्थापित , प्रताड़ित और अपमानित कश्मीरी पंडितों की बात न हो ये तो उस घाटी के इतिहास के साथ ही घोखा होगा । या फिर मैं ये कहूं कि उस जिंदा सच को विशाल भरद्वाज ने सिरे से खारिज ही कर दिया है । काफिरो कश्मीर छौड़ो, अपनी औरतें हमारे लिये छौड़ो....जैसे नारों के बीच 80 - 90 के दशक के बीच कश्मीर से लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हो चुका था । करीब 5 दशक पहले से ही कश्मीरी पंडितों को घाटी से भागाये जाने की योजना वहां के ही मुस्लिमों और अलगाववादियों ने शुरू कर दी थी । आज कश्मीर घाटी में 800 के लगभग ही कश्मीरी पंडितों की संख्या बची रह गई है जो वहां पर किसी तरह से आतंक के व अलगाववादियों के साए में जिंदा हैं ।
कश्मीर के इतिहास को अगर भारत के सनातन युग में जाकर जानने की कोशिश करेंगे तो वहां से हिंदु और उसके बाद बौद्ध संस्कृति की खुशबू साफ महसूस की जा सकती है । इस्लाम तो इस वक्त अपने अस्तित्व में ही नहीं था । ऋषि कश्यप के नाम पर इस खूबसूरत शिव-सती के निवास स्थान का नाम कश्मीर हुआ । जिन वादियों के कण-कण में भारतीय संस्कृति रची व बसी हुई है वहां पर भारत का तिरंगा अगर आज लहरा रहा है तो इसमें हमारे शहीदों का बलिदान है । जिस कश्मीर में वहां के मूल निवासियों , कश्मीरी पंडितों , को जुल्म ढाहकर भगा दिया गया आज वहां पर पाकिस्तान प्रेम देखा जा सकता है । आज क्यों अलगाववादियों के सर कश्मीर में इतने पुरजोरी के साथ दिखाई देते हैं , क्योंकि कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित मानावाधिकार और सेक्युलर चेहरे लगातार पाले पोसे जा रहे हैं जिनका काम सिर्फ देश भर के मानवाधिकार के ठेकेदारों को कश्मीर का वो सच बताना है जो दरासल बेबुनियादी नींव व आधे सच के सहारे खड़ा है । पंद्रह अगस्त , 26 जनवरी या फिर ईद या बकरीद पर जिस कश्मीर में धड़ल्ले व नमकहरामी से पाकिस्तान का झंडा लहराया जाता है वो किसी मानवाधिकार या प्रबुद्ध वर्ग की आंखों में नहीं खटकता है । सिर्फ एक समुदाय विशेष के लोगों को खुश कर देने की दास्तान बयां करता है हैदर और उसके सहयोगी किरदार । और आज बकरीद के मौके पर कश्मीर में फिर से उसी आवाज़ को बुलंद करते हुए जब इस्लामिक स्टेट जैसी क्रूर व अमानवीय संगठन के झंडों को लहराया गया है तो ये मानवाधिकार के ठेकेदार अचानक गूंगे व बहरे हो गए हैंं । तब कोई विशाल भारद्वाज या महेश भट्ट इन घटनाओं का विरोध करता हुआ नहीं दिखाई देता है । आखिर इस देश की धरती से नापाक पाकिस्तान के झंडे लहराने वालों को अगर गोली मारकर खत्म कर दिया जाता है तो मैं तो इसे सेना की और हर देशप्रेमी की जीत ही कहुंगा । हद तो तब हो जाती है जब यही सेक्युलर समाज और मुस्लिम समाज कश्मीर में आईएसआईएस जैसी नापाक व क्रूर संगठन के झंडों को फहराए जाने के बाद भी खामोश से रहते हैं ...।
ये एक खोखली फिल्म इंडस्ट्री है जो विशुद्ध रूप से एक खास वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करते हुए सिर्फ और सिर्फ पैसे बनाने की फितूर में लगी हुई है । सस्ती लोकप्रियता के नाम पर देश की अस्मिता व अखंडता से खेलना इनका पेशा बन चुका है । मेरे लिए हैदर ने भारत के सीने में एक और खंजर ही घोपा है जो कोई देशभक्त तो नहीं ही कर सकता है ।
।।।जह हिंद।।।

कुछ प्रूव करने की जरूरत आखिर क्यों ?


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अभी STAR PLUS चैनल पर एक सीरियल आ रहा है जिसका नाम है एवरेस्ट ( EVEREST) । इसकी कहानी का सारांश ये है कि लड़की अपने पिता की नजर में सम्मान पाने के लिए एवरेस्ट की चढ़ाई चढ़ती है और कामयाब हो जाती है । बहुत ही अच्छी और रोचक कहानी है निसंदेह लेकिन क्या वाकई ये एक प्रेरणदायी कहानी हो सकती है ? इसका जवाब बहुत ही सीधा है ..नहीं ..ये कहानी समाज में सिर्फ एक नकारात्मक उदाहरण रखने के सिवाय कुछ नहीं कर रही है । ऐसी ही तमाम कहानियों से पटा पड़ा है हमारा चलचित्र संसार जहां पर लड़की कुछ न कुछ प्रूव ही कर रही है और फिर उसके बाद उसे सम्मान का भागीदार बनाया जाता है ।
मेरे विचार से ये एक प्रकार की शर्त लादी जा रही है महिलाओं पर या फिमेल जेनेरशन पर कि आपको अगर समाज में , परिवार में या फिर खुद की नजर में सम्मान की दरकार है तो आप पहले ये तय टारगेट को पूरा करो । क्यों करे लड़की किसी टारगेट को पूरा और क्यों उसके बाद ही उसे सम्मान और इज्जत दी जाए ? इस हिसाब से मिली इज्जत और सम्मान को मैं गलत मानता हूं । ये गलत उदाहरण समाज के सामने रखा जा रहा है जहां पर लोगों के मन में बेटी के प्रति एक आस और एक उम्मीद का नकारात्मक बीज बोया जा रहा है । क्या समाज में बेटों को भी इसी तरह के टारगेट सेट करके उसपर विजय प्राप्त करने के बाद सम्मान मिलता है ? नहीं । उनके लिए समाज जन्म से ही सम्मान और इज्जत देने के लिए तैयार खड़ा है । उनके लिए किसी बाप ने एवरेस्ट की ऊंचाई पर चढ़ने का और उसपर फतेह पाने का टारगेट सेट नहीं कर रखा है । बेटे का जन्म ही उसके सम्मान और इज्जत की गारंटी हो जाता है । लेकिन बेटी हुई तो चलो पहले अपने आपको प्रूव करो कि तुम एक लड़के बराबर वो सभी काम कर सकती हो जो लड़का कर सकने में समर्थ है । बेटी बेटों से कम नहीं होती । इस स्लोगन में ही नकारात्मकता है । बेटी बेटों से कम नहीं होती से क्या मतलब है कि बेटों को पहले ही उस स्थान पर बैठा दिया है और अब तुलना कर रहे हैं कि बेटी भी वहां पहुंच सकती है । गलत है ऐसी धारणा और गलत हैं ऐसे स्लोगन । बेटी बेटी होती है और बेटा बेटा होता बात खत्म । जो काम बेटी कर सकती है हमें उन्हें सम्मानित नजर से देखना होगा । समाज में इस तर्क को खत्म करना होगा कि अगर बेटी घर का काम करती है तो वह महिलाओं के लिए ही बना हुआ है । नहीं ऐसा कतई नहीं है । हमें हर उस काम को महत्व देना होगा जो बेटियां कर रहीं हैं या करती आई हैं । बंद करना होगा ये कहना कि पायलट तो बेटियां भी बनतीं हैं । जी नहीं पायलट बेटा और बेटी दोनो ही बन सकते हैं । बंद करना होगा ये कहना कि अब तो ये काम बेटियां भी करती हैं ...जी नहीं ये काम बेटे और बेटियां दोनो ही करते हैं ।
अगर मैं एवरेस्ट नामक सीरियल के निर्माता को एक छोटा सा उदाहरण देकर अपनी बात देश की सभी बेटियों तक पहुंचाऊ तो ज्यादा सटीक होगा । कैसे ...बबीता - गीता - विनेश , ये तीनों बहनें रेस्ट्लर हैं और 2010 व 2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स में तीनों ने स्वर्ण पदक हासिल किया था । आइए इनके बारे में और इनके परिवार के बारे में जानते हैं । पिता महावीर सिंह फोगत की तीनों बेटियां अंतर्राष्ट्रीय स्तर की रेस्ट्लर हैं और तीनों ही स्वर्ण पदक विजेता रहीं हैं । कई साल पहले इनके पिता महावीर जी ने जब अपनी बेटियों को गांव के अखाड़ों में कुश्ती के दांव पेंच सिखाने के लिए उतारा था तो पूरे गांव के लोगों ने महावीर जी को काफी समझाया और उनका विरोध भी किया कि बेटियों को कुश्ती कराने के लिए नहीं घर में चूल्हा चौका कराने के लिए बड़ा किया जाता है लेकिन महावीर जी को शायद बेटियों पर जन्म से ही भरोसा था ...हमारे समाज को भी महावीर जैसी ही सोच लानी होगी जहां पर बेटियों के द्वारा कुछ प्रूव करने से पहले ही हमें बेटियों को वो सम्मान और वो इज्जत का दर्जा देना होगा । न कि किसी प्रतिस्पर्धा में गोल्ड मेडल लाने के बाद हम बेटियों को सम्मान दें ये तो बनियागीरी हो गई । महावीर जी को अपनी बेटियों को कुश्ती सिखानी थी न कि उनसे किसी तरह का गोल्ड मेडल लाने का उनका ख्वाब था । जब पिता ने इतना भरोसा किया तो बेटियों ने भी पिता की शान को और बढ़ा दिया मेडल लाकर ....लेकिन अगर वो मेडल ना लातीं तो क्या महावीर जी का व्यवहार बदल जाता । जी नहीं क्योंकि महावीर जी की सोच कुछ प्रूव करने के बाद नहीं बल्कि जन्म से ही ऐसी थी ।
यदि प्रूव करने के बाद के विचार में आए बदलावों पर नजर दौड़ाएं तो बेटियों को सम्मान मिलने के बाद भी सोच में बदलाव तो आएगा ही नहीं और फिर हालत पुणे की इंदिरा गायकवाड़ जैसी हो जाएगी जिसे भारत सरकार ने उनकी उपलब्धि को देखते हुए सरकारी जॉब की तो घोषणा कर दी लेकिन बाद में उन्हें अपने मेडल तक बेचने की नौबत देखनी पड़ रही है (http://www.thehindu.com/…/maharashtras-t…/article6386465.ece) ।
मेरा मानना है कि बेटियों के सामने किसी तरह की कोई शर्त ही नहीं रखनी चाहिए और उन्हें सम्मान व इज्जत जन्म के समय से ही मिलना चाहिए और ये तभी संभव होगा जब ये हमारे अंदर से आए । हमारे सामने फिल्म रखी जाती है मैरीकॉम की और उदाहरण दिया जाता है कि मैरीकॉम की तरह कुछ प्रूव करो तो आपके पिता भी आपको सम्मान देंगे ...नहीं ये गलत संदेश है ...जरूरत है ऐेसे उदाहरणों की जिनमें बबिता - गीता के पिता को आदर्श स्वरूप दिखाया जाए और लोगों की बेटियों से बंधती उम्मीदें खत्म होकर उनके प्रति सम्मान पैदा हो सके । वास्तव में हमारे देश में बेटियों को इसी सम्मान की जरूरत है और यदि उनको जन्म से ही ऐसा आदर व सम्मान मिलना शुरू हो गया तो यकीन मानिए कि पूरा दृष्य अपने आप ही सुंदर और प्यारा हो जाएगा ।
.......................जय हिंद ।

Anxiety grips Indira Gaikwad as she hobbles on her crutches in her matchbox-sized home tucked away amid the rundown tenements in the city’s...
thehindu.com|By Shoumojit Banerjee